मंगलवार, 19 जून 2007

एक सॉफ़्टवेयर इंजीनियर के दिल की दास्तान

ना करूँ स्विच ?
क्यों ना करूँ स्विच ?

अंधियारी निशा का साया
सप्ताहांत संध्या पर
काम का चरम दबाव
वातानुकूलित लैब मे बैठ
मेरा निशाचरी दिल सोचता है
क्यों ना करूँ स्विच ?

आउट डेटेड बॉस के
घिसे-पिटे वादों से क्षुब्ध
आदिकालिन ख्यालों से आहत
अपने ही दोस्तों से प्रतिस्पर्द्धा करता
मेरा सहज दिल सोचता है
क्यों ना करूँ स्विच ?

काम की तलाश
जिम्मेदारी की आस
सम्मान कि क़सक मे
टीम दर टीम - प्रोजेक्ट दर प्रोजेक्ट
मेरा भटकता दिल सोचता है
क्यों ना करूँ स्विच ?

नाकारे माहौल मे
मक्कारों के बीच
विलुप्त होते प्रोजेक्ट्स का साया
घटती कार्मिकों की तादाद से
मेरा असुरक्षित दिल सोचता है
क्यों ना करूँ स्विच ?

आर ऐंड डी के लिये हायर्ड
डेवलपमेंट से बोझिल
टेस्टिगं मे अटका
छुट्टियों को चिरकाल से प्रतीक्षित
मेरा कुंठित दिल सोचता है
क्यों ना करूँ स्विच ?

बहुराष्ट्रीय आय से सिंचित
वित्त सरिता सी कंपनी
९% इन्क्रीमेण्ट के चने चबाता
ऑनसाइट के सपने, सपनो मे देखता
मूल्यांकन-समीक्षा मे लताड़ित
मेरा प्रताड़ित दिल सोचता है
क्यों ना करूँ स्विच ?


ऐसे ये कविता मैने नही लिखी है । हमेशा की तरह इंटरनेट से चुरायी हुई है । :-)

मंगलवार, 20 मार्च 2007

नमो देव्यै महादेव्यै...

तन्त्रोक्तम् देवी सूक्तम्


नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्मताम् ॥१॥

रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्यै धात्र्यै नमो नमः ।
ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नमः ॥२॥

कल्याण्यै प्रणतां वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नमः।
नैऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः ॥३॥

दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै ।
ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः ॥४॥

अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः ।
नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः ॥५॥

या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥६॥

या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥७॥

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥८॥

या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥९॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१०॥

या देवी सर्वभूतेषु छायारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥११॥

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१२॥

या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१३॥

या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१५॥

या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१५॥

या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१६॥

या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१७॥

या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१८॥

या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥१९॥

या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥२०॥

या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥२१॥

या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥२२॥

या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥२३॥

या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥२४॥

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥२५॥

या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥२६॥

इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या ।
भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः ॥२७॥

चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद्व्याप्य स्थिता जगत् ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥२८॥

स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रयात्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता ।
करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ॥२९॥

या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितै-रस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते ।
या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः सर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः ॥३०॥

शुक्रवार, 16 मार्च 2007

एच एस बी सी - द वर्ल्ड्‌स लोकल बैंक

वाह रे "एच एस बी सी" (HSBC)...
अपने आप को कहते हैं द वर्ल्ड्‌स लोकल बैंक यानि कि पूरी दुनिया इनके लिये आस-पड़ोस जैसी है, यानि कि आपका सारा काम ये फ़टाफ़ट कर देंगे, दूरी की समस्या नही होगी । लेकिन अभी अभी मुझे इनके साथ ऐसा अनुभव हुआ कि लगा कि ये किसी ग्रामीण सहकारी बैंक से कम नही हैं । असल मे बैंगलोर स्थित हमारी कम्पनी मे हम जितना भी वक़्त गुज़ारते हैं, उसके लिये हमे तनख़्वाह नाम की एक अतिआवश्यक चीज़ महीने के अन्त मे इन्ही 'एच एस बी सी' जी के माध्यम से मिलती है । अब हुआ ये कि हमे कुछ पैसे भेजने की आवश्यकता पड़ी अमेरिका मे अपने जान पहचान के किसी सज्जन को और वो भी जल्दी से जल्दी । हमने तो सोचा भाई कि अपना तो अकाउण्ट, 'द वर्ल्ड्‌स लोकल बैंक' मे है, हमे कोई प्रॉब्लम ही नही होगी । लेकिन जब कॉल सेण्टर नम्बर लगा के पूछे कि भइया कैसे होगा ये काम तो हमे ये उत्तर मिला -

१.) पहले अपने अकाउण्ट मे थर्ड पार्टी ट्रान्सफ़र इनेबल करवाइये । उसके लिये एक फ़ॉर्म भरिये और उसे जमा करिए (इन्टरनेट के जरिये ये काम नही होगा) ।
२.) फ़िर यदि भारत से बाहर पैसे भेजने हैं तो बैंक की किसी शाखा मे जाइये और एक और फ़ॉर्म भरिये (इन्टरनेट के जरिये ये काम भी नही होगा) ।
३.) ऊपर के दोनो कामो के लिये ४ से ५ वर्किंग डेज़ (कामकाजी दिन) भी लगेंगे । वो भी अलग अलग ।

इतना सब कुछ तब, जबकि हमारा अकाउण्ट "पॉवरवाण्टेज" जैसी अत्याधुनिक सुविधा से सुसज्जित है और बाकी के सारे काम इण्टरनेट पर ऑनलाइन ही किये जा रहे हैं ।

मान गये हम एच एस बी सी को ।

बुधवार, 14 मार्च 2007

१८५७ - आओ कुछ याद करें

प्रिय मित्रों,
२००७ का ये साल , सन् १८५७ मे हुए भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संघर्ष की १५०वीं सालगिरह का साल है । और जब बात हो १८५७ की तो दो नाम ज़रूर याद आते हैं, मंगल पाण्डेय और झाँसी की रानी । कुछ दिनो पहले आमिर ख़ान, मंगल पाण्डेय की भूमिका मे नज़र आये थे, इसी नाम वाली एक फ़िल्म मे । आगे सुष्मिता सेन झाँसी की रानी का किरदार निभाने जा रही हैं । लेकिन मुझे जो बात याद आती है इनसे सम्बद्ध वो है एक कविता । बचपन मे पढ़ी एक कविता । ""खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी "" ...
आज मै उसी कविता को आप सभी के लिये पेश कर रहा हूँ । कवियित्री हैं "सुभद्रा कुमारी चौहान" । आज भी इस कविता को जब मै पढ़ता हूँ तो मुझे रोमांच हो जाता है । क्या सजीव चित्रण किया है कवियित्री ने -

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में थी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।
महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
नि:संतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हर्षाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्व असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

-- "सुभद्रा कुमारी चौहान"

शनिवार, 3 मार्च 2007

होली की शुभकामनाएँ - बनारस से

प्रिय मित्रों,
आप सभी को होली की बहुत बहुत शुभकामनाएँ । जी भर के रंग खेलिए, अबीर-गुलाल लगाइए, गुझिया-पापड़ खाइए, दोस्तों के साथ साथ दुश्मनो को भी गले लगाइए और मजे करिए ।
सब के बीच प्रेम और सौहार्द बढ़ता रहे और कटुता का मैल, होलिका की आग मे आज रात ही दहन हो जाए ऐसी मंगलकामनाओं के साथ -

आपके अपने
पाण्डेय जी 'बनारस' वाले

मंगलवार, 27 फ़रवरी 2007

Re: मैं सिर्फ़ हिन्दूवादियों से मुख़ातिब हूं

फ़रीद ख़ान साहब और बाकी के लोग,
मैने कुछ दिन पहले ही नारद जॉएन किया है और आने के साथ ही इतना सारा ज़हर देखने सुनने को मिल रहा है । कुछ कमेन्ट्स लिख रहा हूं । जिसे बुरा लगे उस भाई-बन्धु से एडवान्स मे सॉरी ।

पर आपकी बात सुन कर बहुत दु:ख हुआ । आपने तो स्वयं ही "बात ना सुनने पर धमाकों की धमकी दे डाली" । भारत एक बहुत बड़ा देश है और भारत की समस्याएं भी बहुत बड़ी, पुरानी और जटिल । जाने कितने लोगों की बात नही सुनी जाती । जाने कितने लोगों की बात नही सुनी जा सकती । क्या वो सब धमाके करने लगें ? लेकिन करेंगे क्या आप । अपनी आदत से मजबूर हैं । तभी तो इस बीमार दृष्टिकोण को सही समझा रहे हैं । आप जैसे लोग ही तो हैं जिन्होने आपकी कम्यूनिटी को बदनाम कर रखा है । कभी शिक्षा की बात नही । कभी विकास की बात नही । कभी आगे बढ़ने की बात नही । बस वही घिसी पिटी बातें की हमारे साथ ये हुआ, वो हुआ । हमेशा बाँटने वाला दृष्टिकोण । कभी समाज की समस्याओं पर बिना हिन्दू-मुस्लिम ऐंगल के भी नज़र डालिये । सारा तो शायद किसी पब्लिक स्कूले मे जाती होगी । कभी उन बच्चों के बारे मे सोचिये जिन्हे स्कूला जाना भी नसीब नही होता ।

सारा को उसकी टीचर ने कहा की सबेरे उठ के भगवान की पूजा करनी चाहिये
तो वो ग़लत हो गया । सारा के माता-पिता ने उसे ये क्यों नही समझाया कि बेटे, पूजा और इबादत एक ही चीज़ होते हैं । और ये कि सिर्फ़ सबेरे ही नही, हम पाँच बार इबादत करते हैं दिन मे । उसे ये क्यों नही समझाया कि हिन्दी मे जिसे उसकी टीचर भगवान कह रही थीं असल मे उसी को उसके घर मे ख़ुदा बुलाया जाता है । क्यों नही समझाया, बताइये ?
मेरे ख़्याल से तो सारा के माँ-बाप के पास एक अच्छा मौका था, एक अच्छी सीख की नीँव डालने का जिसे उन्होने बेकार कर दिया, और चले आये ब्लॉग लिखने और शिकायत करने ।

मुझे नही पता कि जीवन मे आपने क्या क्या देखा है जिसकी वज़ह से आपको इतनी कड़वाहट मिली है । मै तो पैदा हुआ हूँ बनारस मे और पूरा बचपन यहीं बिताया है । मुस्लिम बहुल क्षेत्र के बगल मे ही रहता हूँ और जाने कितने दंगे अपनी आँखों से "लाइव" देखे हैं । अपना मुँह नही खोलना चाहता उन सारी बातों को लेकर । बस यही कहना चाहता हूँ कि लाइफ़ मे ऐसे ही इतनी टेन्शन है, इतनी परेशानियाँ हैं, इतनी उलझने हैं । यहाँ तक की इन्टरनेट पर भी इतने सारे हेट ग्रुप्स हैं, हेट मेल्स चलती रहती हैं । अब यहाँ भी वही सब चालू । मै तो करने आया था प्यार-मोहब्बत की बातें, शेर-ओ-शायरी, बचपन की भूली-बिसरी कविताओं और कहानियों की बातें लेकिन अब लिख रहा हूँ ये सब ।

धिक्कार है ! ऐसी शिक्षा, ऐसे समाज, सब को धिक्कार है ।

रविवार, 25 फ़रवरी 2007

कुछ शेर पेश-ए-ख़िदमत हैं - २

प्यारे दोस्तों,
हम हैं अभिषेक पाण्डेय 'बनारसी' । आप थोड़ी ज़्यादा इज़्ज़त देना चाहें तो पाण्डेय जी 'बनारस वाले' भी पुकार सकते हैं । इस ब्लॉगजगत मे हम (वो क्या कहते हैं कि) न्यूबी हैं, यानि कि नवागन्तुक हैं, नौनिहाल हैं । ये तो नारद मुनि की कृपा थी कि हमारा ब्लॉग भी लोगों के पास पहुँच गया और लोग पढ़ने भी लगे । पिछली पोस्ट से मिली हौसलाफ़ज़ाई के लिये हम बड़े ही शुक्रगुज़ार हैं और आपके लिये लेकर आये हैं ये नया कलेक्शन ।

पिछली बार के मेरे सारे शेर बड़े पॉज़िटिव थे, सकारात्मक थे । लेकिन ये भी कोई बात हुई ? जब तक मोहब्बत की बात ना हो, दिल के दर्द की बात ना हो, साक़ी, जाम और मैख़ाने की बात ना हो, तब तक कैसा शेर ? इसीलिये इस बार कुछ ऐसे शेर लाया हूँ जो मोहब्बत की बात करते हैं ।

मोहब्बत... सबकी तरह हमने भी कभी की थी... कुछ ना हुआ उसका... लेकिन-

क़सूर ना उनका है ना मेरा
हम दोनो ही रिश्तों की रस्मे निभाते रहे
वो दोस्ती का एहसास जताते रहे
हम मोहब्बत को दिल मे छुपाते रहे ॥

हम अफ़सोस करें भी तो कैसे... क्योंकि-

मोहब्बत हो गयी जिनसे, शिक़ायत उनसे क्या होगी
ज़ुबाँ तक बात जो आयी, यक़ीनन वो दुआ होगी ॥

और कोई जो ये पूछे कि कौन हैं वो, कुछ बताओ तो सही... तो मै तो बस यही कहूँगा कि-

मुस्क़ुराते हैं तो बिजलियाँ गिरा देते हैं
बात करते हैं तो दीवाना बना देते हैं
हुस्न वालों की नज़र कम नही क़यामत से
आग पानी मे वो नज़रों से लगा देते हैं ॥

अपनी मोहब्बत के बाबत हमने उनसे कहा भी कि-

बिखरी हुई ज़ुल्फ़ों को ग़िरहगीर बना लो
रखना है मुझे क़ैद तो ज़ंजीर बना लो
क़ागज़ पे लकीरें तो बहुत खींच लीं तुमने
अब सबको मिलाकर मेरी तस्वीर बना लो ॥

लेकिन उनको मेरी तस्वीर बनाने का वक़्त कहाँ ?
ख़ैर ऐसे ज़ुल्म-ओ-सितम के लिये तो हम पहले से ही तैयार थे । हमारी तो निग़ाह ही बदल गयी थी-

ना हमने बेरुखी देखी न हमने दुश्मनी देखी
तेरे हर एक सितम मे हमने कितनी सादगी देखी
कभी हर चीज़ मे दुनिया मुकम्मल देखते थे हम
कभी दुनिया कि हर एक चीज़ मे तेरी कमी देखी
न दिन मे रोशनी देखी न शब मे चान्दनी देखी
तेरी उल्फ़त मे हमने इस कदर भी ज़िन्दगी देखी
वो क्या अहद-ए-वफ़ा देंगे वो क्या गम की दवा देंगे
ज़िन्होने देख कर भी इश्क़ मे जन्नत नही देखी
यहाँ हम दिल जलाकर के किया करते है श़ब रोशन
वहाँ एक तुम हो जिसने देखी भी तो आग़ ही देखी
'क़सक' हर बार सोचा है ग़िला करना न भूलेंगे
मगर हर बार भूले हैं वो आँखें जब भी नम देखीं ॥

बस अब ज़्यादा क्या बताएँ, हमारी मोहब्बत का फ़साना इससे बड़ा कुछ है भी तो नही-

मासूम मोहब्बत का बस इतना फ़साना है
काग़ज़ की हवेली है बारिश का ज़माना है
क्या शर्त-ए-मोहब्बत है क्या शर्त-ए-फ़साना है
आवाज़ भी ज़ख़्मी है और गीत भी गाना है
उस पार उतरने की उम्मीद बहुत कम है
कश्ती भी पुरानी है तूफ़ान भी आना है
समझे या ना समझे वो अंदाज़-ए-मोहब्बत को
एक शख़्स को आँखों से हाल-ए-दिल सुनाना है
मासूम मोहब्बत का बस इतना ही फ़साना है
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है ॥

जाने कितना वक़्त गुज़र गया पर हम अभी भी उनके लिये यही सोचा करते हैं कि-

ये नज़रें भी कितनी मग़रुर हैं
इनको बस आइना देखते रहना है
और हम जो तरसते थे इक नज़र के लिये
आज आँसू बनकर हमे बहना है
फ़ुरसत जब मिले तो याद हमे भी करना
चलते चलते बस यही कहना है............


आदाब अर्ज़ है



[वही पुराना वाला डिस्क्लेमर: अगर किसी दोस्त को लगता है कि यहाँ किसी तरह का कॉपीराइट हनन हो रहा है (मसलन किसी के लिखे शेर बिना इज़ाजत छापे गये हैं) तो मुझे फ़ौरन बताएं, मै उनको तुरन्त हटा लूंगा । ]

कुछ शेर पेश-ए-ख़िदमत हैं - १

दोस्तों,
कुछ शेर आपकी ख़िदमत मे पेश कर रहा हूँ ।
मेरे ख़ुद के लिखे हुए नही हैं । बस यूँही, कभी किसी दोस्त से आयी ई-मेल मे, कभी यहाँ से कभी वहाँ से, जो कुछ अच्छा मिल गया उसे सँजो के रखता गया । अब सोचता हूँ इन्हे आप सब के साथ बाटूँ । आप इनका लुत्फ़ उठाइये ।

[मग़र हाँ, अगर किसी दोस्त को लगता है कि यहाँ किसी तरह का कॉपीराइट हनन हो रहा है (मसलन किसी के लिखे शेर बिना इज़ाजत छापे गये हैं) तो मुझे फ़ौरन बताएं, मै उनको तुरन्त हटा लूंगा । ]

हाँ तो ज़रा ग़ौर फ़रमाइयेगा -

रहने दे आसमां ना अब कहीं की तलाश कर
सब कुछ यहीं है ना अब कहीं की तलाश कर ।
हर आरज़ू हो पूरी तो जीने मे क्या मज़ा है
जीने के लिये एक कमी की तलाश कर ॥

और जब बात हुई जीने के तरीके की तो फ़िर ये भी याद कर लेना चाहिये कि -

कुछ लोग थे जो वक्त के सांचों मे ढल गये
कुछ लोग थे जो वक्त के सांचे बदल गये ॥

जाने कैसे लोग थे वो । शायद उनकी सोच ऐसी होती होगी -

ज़िन्दगी की असली उड़ान अभी बाकी है
हमारे इरादों का इम्तिहान अभी बाकी है ।
अभी तो नापी है सिर्फ़ मुट्ठी भर ज़मीन
आगे सारा आसमान अभी बाकी है ॥

और ऐसी सोच वाले अगर इश्क़ करते होंगे तो वो भी इसी ज़ज़्बे के साथ -

दयार-ए-इश्क में अपना मक़ाम पैदा कर,
नया ज़माना नये सुबहो शाम पैदा कर |


आदाब अर्ज़ है ।

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2007

अधूरी कविता - २

दोस्तों,
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' जी की ये कविता "वह तोड़ती पत्थर", भी एक ऐसी रचना है जो मेरे दिल के बहुत करीब है । कक्षा आठ के पाठ्यक्रम मे हुआ करती थी । इसे मैने दो बार मंच पर भी पढ़ा है, बचपन मे, कविता प्रतियोगिताओं के दौरान । शायद इसीलिये काफ़ी हद तक याद है ये मुझे । पर फ़िर भी दूसरा पैरा, पूरा नही हो पा रहा है । पूरा करने मे सहायता अपेक्षित है -

वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैने, इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर ।

कोई न छायादार वृक्ष
वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार
श्याम तन भर बंधा यौवन
नत तयन प्रिय कर्म रत मन
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार बार प्रहार
सामने तरुमालिका अट्टालिका प्राकार
चढ रही थी धूप
गरमियों के दिन दिवा का तमतमाता रुप
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगीं छा गयी
प्रायः हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर ।।

देखते देखा मुझे जो एक बार
उस भवन की ओर देखा छिन्नतार
देख कर कोई नही देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नही
सजा सहज सितार
...
...
...
...
लीन हो कर कर्म मे फिर ये कहा
मै तोड़ती पत्थर ॥

- सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

सधन्यवाद,
~अभिषेक~

रविवार, 11 फ़रवरी 2007

अधूरी कविता - १

जब बात हो रही है बचपन की कविताओं की तो एक कविता मुझे ज़रूर याद आती है, लेकिन अफ़सोस कि वो पूरी याद नही है । सिर्फ़ शुरूआत कि कुछ पंक्तियाँ ही दिमाग़ मे हैं अभी ।
अग़र कोई सज्जन इसे पूरा कर सकें तो बहुत आभारी रहूंगा --

यदि होता किन्नर नरेश मै, राजमहल मे रहता
सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता ।

बन्दी जन गुण गाते रहते दरवाजे पर मेरे
प्रतिदिन नौबत बजती रहती, सन्ध्या और सवेरे ।

बुधवार, 7 फ़रवरी 2007

हिन्दी कविताएं

प्रिय मित्रों,
सोचता हूँ कि शुरुआत कुछ हिन्दी कविताओं से करूँ । कुछ ऎसी कविताएं जो कि दिल के बहुत करीब हैं । कारण - बचपन से ही ये कविताएं ज़हन मे समा सी गयी हैं । बचपन - भोला और मासूम बचपन, उस समय तो बस ये था कि ये कविताएं पाठ्यक्रम का हिस्सा मात्र थीं । या तो इन्हे याद करो, या फ़िर सन्दर्भ, प्रसंग, भूमिका, और भावार्थ वग़ैरह के साथ इनके कुछ हिस्से इम्तेहान के लिये तैयार करो । कविता का सही सही अर्थ, उसका भाव, उसका सन्देश... ये सब कहां समझ मे आने वाले थे । अब पढ़ो तो लगता है कि वाह! क्या लिखा है कवि ने ।

ऐसी ही एक कविता है "जलाओ दिये" । यूपी बोर्ड मे शायद छठवीं कक्षा मे थी मे ये कविता । कवि का नाम गोपालदास "नीरज" है । जरा देखिये कविता का भाव, सन्देश और शब्द -

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाये |

नयी ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
उषा जा न पाये, निशा आ ना पाये |

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाये |

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूं ही,
भले ही दिवाली यहां रोज आये |

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाये |

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अंधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अंधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आये |

जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अन्धेरा धरा पर कहीं रह न जाये ||

-- गोपालदासजी "नीरज"

ऐसी ही कुछ और भी कविताएं हैं दिमाग़ मे । जल्दी ही लिखता हूँ उनके बारे मे भी...

आपके अपने
~~ पाण्डेय जी "बनारस वाले"~~

आभार

इससे पहले कि बातें शुरू की जायें, थोड़ी उपयोगी जानकारी -

जिन बन्धुओं को हिन्दी पढ़ने मे समस्या हो रही हो, यानि जिनके ब्राउज़र (browser) हिन्दी अक्षर और मात्राएँ ठीक से नही दिखा पा रहे हैं, उनके लिये निम्नांकित कड़ी (link) उपयोगी साबित हो सकती है:-

ब्राउज़र मे भारतीय भाषाओं को सही तरीके से कैसे पढ़ें

थोड़ा बड़ा लेख है लेकिन बहुत उपयोगी है, और ऎसे भी ये काम आपको सिर्फ़ एक बार ही करने की ज़रूरत है ।


और यदि आप हिन्दी मे लिखना भी चाहते हैं तो इस (नीचे दी हुई) कड़ी को देखें :-

हिन्दी मे कैसे लिखें

इस पन्ने पर देवनागरी मे टाइप करने के बारे मे सहायता देने वाली बहुत सी कड़ियां दी हुई हैं ।

चूँकि मैने इन दोनो कड़ियों से सहायता ली है इसलिये उनके बारे मे यँहा जानकारी दे कर मै उन लोगों का आभार भी व्यक्त कर रहा हूँ जिन्होने उन्हे तैयार किया है ।

प्रस्तावना



प्रिय मित्रों,

अपने हिन्दी ब्लॉग का आरम्भ करते हुए मुझे अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है । बहुत दिनो से सोच रहा था कि ये काम शुरू किया जाय लेकिन कुछ ना कुछ अड़चने आ जाती थीं । लेकिन आज भगवान की कृपा से इसका आरम्भ हो ही गया । आशा करता हूँ कि कुछ ऎसा लिखूँ जो कि पढ़ने वालों को अच्छा लगे और उपयोगी भी हो ।

आपके सुझावों का सदैव स्वागत है ।

आपके अपने
~~ पाण्डेय जी "बनारस वाले"~~