शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2007

अधूरी कविता - २

दोस्तों,
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' जी की ये कविता "वह तोड़ती पत्थर", भी एक ऐसी रचना है जो मेरे दिल के बहुत करीब है । कक्षा आठ के पाठ्यक्रम मे हुआ करती थी । इसे मैने दो बार मंच पर भी पढ़ा है, बचपन मे, कविता प्रतियोगिताओं के दौरान । शायद इसीलिये काफ़ी हद तक याद है ये मुझे । पर फ़िर भी दूसरा पैरा, पूरा नही हो पा रहा है । पूरा करने मे सहायता अपेक्षित है -

वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैने, इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर ।

कोई न छायादार वृक्ष
वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार
श्याम तन भर बंधा यौवन
नत तयन प्रिय कर्म रत मन
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार बार प्रहार
सामने तरुमालिका अट्टालिका प्राकार
चढ रही थी धूप
गरमियों के दिन दिवा का तमतमाता रुप
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगीं छा गयी
प्रायः हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर ।।

देखते देखा मुझे जो एक बार
उस भवन की ओर देखा छिन्नतार
देख कर कोई नही देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नही
सजा सहज सितार
...
...
...
...
लीन हो कर कर्म मे फिर ये कहा
मै तोड़ती पत्थर ॥

- सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

सधन्यवाद,
~अभिषेक~

2 टिप्‍पणियां:

उन्मुक्त ने कहा…

हिन्दी चिट्ठे जगत में स्वागत है।

बेनामी ने कहा…

Nirala jee ne shabd chitra se puri kavita ko hi saja diya hai. aaj kiske paas fursat hai garibon ko dekhne ki, garibi ko anubhav karne ki. Dhanya hain nirala jee
Aditya Verma
ADDITIONAL SP